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शैक्षिक तकनीकी एवं मूल्यांकन

                               अनुसंधान वैधता

इसका संबंध शोध निष्कर्षों से होता है। शोध निषकर्ष कितने सार्थक एवं उपयोगी हैं। इसका अनुमान उसके व्यवहारिक रूप से लगाया जाता है।


१- आन्तरिक वैधता- से तातपर्य उन निष्कर्षो से होता है जिनमें आकडे नियन्त्रित परिस्थिति में प्राप्त किये जाते हैं। प्रयोगात्मक शोधों की आन्तरिक वैधता अधिक होती है। परिस्थितियां जितनी अधिक नियन्त्रित होती हैं आन्तरिक वैधता उतनी अधिक होती है।


२- बाह्य वैधता- इसका संबंध उन शोध निष्कर्षों से है जिनमें न्यादर्श जनसंख्या का शुद्ध रूप में प्रतिनिधित्व करता है। सर्वेक्षण विधि से प्राप्त निष्कर्षेा की बाह्य वैधता अधिक होती है। तथा अन्तरिक वैधता अधिक होती है।




                    प्रजाति वृत्तिक अनुसंधान

यह सांकेतिक अन्त: क्रिया और सूक्ष्म मानव व्यवहार का अध्ययन है।
इसमें सामान्यीकरण को महत्व नही दिया जाता । प्रजातिवृत्त मानवशास्त्र की शाखा है। इसमें विभिन्न समय में प्रजातियों का इतिहास एवं उसके आर्विभाव का अध्ययन किया जाता है।

प्रजातिवृत्त अनुसंधान में व्यक्तियों के व्यवहारों  का अध्ययन किया जाता है। एवं व्यकति कैसे अपनी क्रियाओं का प्रत्यक्षीकरण करता है। समुदाय विशेष के लोग कैसा व्यवहार करते हैं एवं क्या सोचते हैं।

इसे स्वाभाविक अनुसंधान या सर्वेक्षण अनुसंधान भी कहते हैं। प्रदत्त संकलन करने के लिए सहभागी विधि का प्रयोग किया जाता है।
विशेषताएं
१-  यह गुणात्मक एवं वर्णनात्मक अनुसंधान है।
२- इसमें निष्कर्षों की बाह्य वैधता अधिक होती है।
३- सम्पूर्ण परिस्थिति को ध्यान में रखकर अध्ययन किया जाता है।
४- इसका संबंध वर्तमान व अतीत से है।
५- इसमें मानव व्यवहार का अध्ययन स्वभाविक परिस्थिति में किया जाता है।

                        प्रजावृत्तिक अनुसंधान के चरण


१-  उददेश्यों का निर्माण
२-  शोध प्रारूप का नियोजन
३-  प्रदत्त संकलन
४-  प्रदत्त विश्लेषण्
५-  निष्कर्ष


One tail test = directional

Two tail test = non directional




                              केन्द्रिय प्रवृत्ति के मान

केन्द्रिय प्रवृत्ति से तातपर्य उस संख्या से है जिसके चारों ओर समूह के सभी अंक छायें रहते हैं। साधारण भाषा में हम इसे माध्य कहते हैं।


                                   प्रकार
मध्यमान (mean)
मध्यांक (median)
बहुलांक(mode)


मध्यमान- मध्यमान वह मान है जो दी हुइ राशियों अथवा प्राप्तांकों के योगफल को उन राशियों की संख्या से भाग देने से आती है।


मध्यांक या माध्यिका- किसी समूह के पदों को आरोही या अवरोही क्रम में रखने पर मध्य पद का मान मध्यांक है।

बहुलांक- बहुलांक बह मान है जो कि समूह के प्राप्ताकों में सबसे अधिक वार आया है।

                                सहसंबंध गुणांक-
गिलफोर्ड- सहसंबंध गुणांक वह अकेली संख्या है जो यह वताता है कि दो वस्तुएं किस सीमा तक एक दूसरे से सहसंबंधित हैं। तथा एक का परिवर्तन दूसरे के परिवर्तन को किस सीमा तक प्रभावित करता है।



                                 प्रकार
१-  धनात्मक (Positive correlation)- जब एक चर में वृद्धि से दूसरे चर में भी वृद्धि होती है तथा एक चर में कमी होने पर दूसरे में भी कमी होती है तो धनात्मक सहसंबंध होगा।

२-  ऋणात्मक सहसंबंध( Negative correlation)- जब एक चर में वृद्धि होने से दूसरे चर में कमी होती है। तथा एक चर में कमी होने से दूसरे में वृद्धि होती है तो ऋणात्मक सहसंबंध होता हैा


३-  शून्य सहसंबंध (Zero correlation)- जब एक चर में वृद्धि या कमी होने से दूसरे पर कोई प्रभाव नही होता तो शून्य सहसंबंध होता है।

                        शैक्षिक मापन एवं मूल्यांकन


मापन के कार्य
१-       यह वस्तुओं की श्रेणियों को व्यक्त करती है।
२-       यह वस्तुओं को अंक प्रदान करने वाले नियमों को दर्शाती है।
३-       यह संख्याओं की श्रेणियों को व्यक्त करती है।



मापन के स्तर
१-शाब्दिक स्तर (nominal level)- यह मापन का सबसे निम्न स्तर है। इसमें वस्तुओं को उनके गुणों के आधार पर अलग अलग समुहों में रख दिया जाता है तथा उन्हें अलग-अलग नाम या संख्या दे दी जाती है।

२-क्रमिक स्तर(Ordinal level)- इसमें वस्तुओं को उनके किसी गुणों के आधार पर आरोही या अवरोही क्रम में रख दिया जाता है।

3 अन्तराल स्तर (Interval level)- इसमें दो वर्गों.व्यक्तियों .अथवा वस्तुओं के बीच अन्तर को अंको के माध्यम से दर्शाते हैं।


4 अनुपात स्तर (Ratio level)- यह मापन का सर्वश्रेष्ठ स्तर है। इसमें उपरोक्त सभी स्तरों की विशेषताएं पायी जाती हैं।



                           मूल्यांकन
इसमें वस्तु का मूल्य निर्धारित होता है। अर्थात वस्तु अच्छी है या बुरी
गुण दोषों के संबंध में किया गया अवलोकन मूल्यांकन से संबंधित है।

रेमर्स एवं गेज के अनुसार - मूल्यांकन के अन्दर व्यक्ति या समान या दोनों की दृष्टि में जो उत्तम है उसको मानकर चला जाता है।


मूल्यांकन का विषय क्षेत्र

१-       शिक्षण उददेश्य
२-       अधिगम अनुभव
३-       व्यवहार परिवर्तन






एस. एस कुलकर्णी- तकनीकी तथा विज्ञान के आविष्कारों तथा नियमों का शिक्षा की प्रक्रिया में प्रयोग को ही शैक्षिक तकनीकि कहा जाता है।




                                 मान्यताएं
इसके अनुसार मानव मशीन की तरह कार्य करता है इसलिए मानव व्यवहार को परिवर्तन करने के लिए वैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जा सकता है।


              शैक्षिक तकनीकी के उपागम या रूप
१-  Hardware approach –( educational technology 1)  यह उपागम भौतिक विज्ञान तथा इन्जीनियरिंग के सिद्धान्तों एवं व्यवहारों पर आधारित है। इसमें श्रव्य दृश्य सामग्री का उपयोग होता है।



२- Software approach-इसका आधार मनोविज्ञान है। इसमें मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। इसे शिक्षण तकनीकी या व्यवहारिक तकनीकी भी कहते हैं।



३- System approach  शैक्षक तकनीकी तृतीय या प्रणाली विश्लेषण - इसमें शिक्षण एवं अधिगम दोनों सम्मिलित हैं। यह प्रशासन एवं प्रबन्धन से सम्बन्धित है।



                            शैक्षिक तकनीकी का क्षेत्र

अदा - प्रदा – प्रक्रिया
Input- output- system
शिक्षण के स्तर
स्मृति स्तर- हरबर्ट
बोध स्तर- एच. सी मोरीसन
चिन्तन स्तर- हंट


                    सूक्ष्म शिक्षण (Micro teaching)



किसी विशेष शिक्षण को सीखने के लिए जो शिक्षण चक्र आयोजित किया जाता है उसे सूक्ष्म शिक्षण कहा जाता है।


पाठयोजना- सूक्ष्म शिक्षण –आलोचना- पुन: पाठयोजना-पुन: शिक्षण - पुन: आलोचना
सूक्ष्म शिक्षण एक वास्तविक शिक्षण है।

अवधि ५-१० मिनट
५-१० छात्र
शिक्षण कौशल
१-              अनुदेशन उददेश्यों को लिखना
२-              पाठ की प्रस्तावना
३-              प्रश्नों की प्रवाहशीलता
४-              अनुशीलन प्रश्न (Probing question)
५-              व्याख्या देना(Explaining)
६-              दृष्टान्त देना (Illustration)
७-              उददीपन परिवर्तन
८-              मौन व अशाब्दिक संकेत
९-              पुनर्बलन
१०-       श्यामपटट प्रयोग
११-       समापन की प्राप्ति
१२-       व्यवहार की पहचान व देखभाल




             अनुरूपण शिक्षण(Simulated teaching)


सीखने तथा प्रशिक्षण की वह विधि जो अभिनय के माध्यम से योग्यता का विकास करती है।
इसमें छात्रों को तीन प्रकार की भूमिका निभानी पडती है।
शिक्षक
छात्र
निरीक्षक


                         अनुरूपण शिक्षा के सोपान

१-              सैद्धान्तिक ज्ञान प्रदान करना
२-              शिक्षण कौशल का निर्धारण
३-              कार्यक्रम की रूपरेखा
४-              निरीक्षण विधि का निर्धारण
५-              प्रथम अभ्यास तथा पृष्ठपोषण
६-              निपुणता प्रदान करना
विशेषताएं
१-              क्रत्रिम परिस्थिति में स्वाभाविक कार्य
२-              कौशलों में प्रवीणता प्राप्त करने का अवसर
३-              छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास पैदा करना


            अभिक्रमित अनुदेशन

इसका विकास बी. एफ. स्किनर ने १९५४ में हार्बर्ड विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में किया था। यह सक्रिय अनुबन्धन सिद्धान्त पर आधारित है।


सुसन मारकल- अभिक्रमित अधिगम व्यक्तिगत अनुदेशन की विधि है जिसमें छात्र सक्रिय रहकर अपनी गति से सीखता है। और उसे तत्काल ज्ञान मिलता है। और शिक्षक की आवश्यता नही होती है।

         अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धान्त


१-              छोटे पदों का सिद्धान्त - पाठयवस्तु को छोटे-छोटे पदों में क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

२-              तत्पर अनुक्रिया का सिद्धान्त- छोटे पदों में रिक्त स्थान छोड दिए जाते हैं छात्र अनुक्रिया करता है।

३-              तत्कालीन जांच का सिद्धान्त - अनुक्रिया के साथ पुष्टि होती है एवं इससे पुनर्बलन प्राप्त होता है।

४-              स्वत: गति का सिद्धान्त - अपनी गति के अपुसार छात्र पदों को पढता एवं सीखता है।

५-              छात्र आलेख का सिद्धान्त - जांच करना प्रष्ठपेाषण प्रविधियों का प्रयोग

               अनुकरणीय विधि

क्रुकशैक      
1968

सामाजिक कौशल सामान्य शिक्षक व्यवहार
सूक्ष्म शिक्षण
बुश. डी. ऐलन
1963
शिक्षण कौशल


प्रशिक्षण समूह
वेदल तथा मैने

शिक्षण समस्याओं के समाधान कौशल

फ्लैन्डर्स अन्त: प्रक्रिया विश्लेषण
नैड ए फ्लैन्डर्स
1963
शाब्दिक अन्त: क्रिया सम्बन्धी कौशल

अभिक्रमित अनुदेशन
बी एफ स्किनर
1954
पाठयवस्तु विश्लेषण कौशल तथा क्रमबद्ध व्यवस्था कौशल




       अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार


१-  रेखीय अभिक्रम Linear
२-  शाखीय अभिक्रम Branching
३-  मैथेटिक्स अभिक्रम  Mathetics

१-  रेखीय अभिक्रम- इयके व्रचर्तक बी एफ स्किनर हैं। इसमें छात्रों के सामने पाठयसामग्री छोटे छोटे पदों में प्रस्तुत की जाती है। छात्र प्रत्येक पद को पढकर अनुक्रिया करता है। तथा उसको बोधगम्य करता है। यदि वह सही अनुक्रिया करता है तो उसको अगले पद पर स्वयं ले जाया जाता है।

इसमें चार प्रकार के पद होते हैं।

१-  प्रस्तावना पद (introductory frames)- इसका कार्य पूर्व व्यवहार को नये व्यवहार से सम्बन्धित करना होता है।

२-  शिक्षण पद (teaching frames)- इसका कार्य शिक्षण करना होता है। प्रत्येक पद नया ज्ञान प्रदान करता है।

३-  अभ्यास पद (Practice frames)- जो शिक्षण पद से प्राप्त होता है उसका  अभ्यास इन पदों से होता है।

४-  परीक्षण पद ( Testing Frames)- इसके द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि छात्र ने कितना सीखा है।



शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Branching programmed instruction)

इसके प्रतिपादक नार्मन ए क्रावडर हैं। इन्होनें स्किनर के अभिक्रमित अनुदेशन की कडी आलोचना की है।

                     मूल सिद्धान्त

१-  छात्रों की गलत अनुक्रकयाएं अधिगम में बाधक नही होती हैं अपितु छात्रों को अध्ययन के लिए निर्देशन प्रदान करती हैं।

२-  इसमें प्रश्नों का उददेश्य निदान करना होता है। परीक्षण करना नही ।

३-  मानव अधिगम के प्रतिमान को प्रत्यक्ष रूप से सरलता से प्रयोग किया जा सकता है।

४-  इसमे छात्रों को सही अनुक्रिया करने के लिए कोइ अनुबोधक या संकेत प्रयुक्त नही किया जाता है।

                     अवधारणायें

१-  किसी पाठयवस्तु को सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत करने से उसे छात्र सरलता से बोधगम्य कर लेते हैं।

२-  छात्रों को अध्ययन के साथ निदान के लिये उपचारात्मक अनुदेशन प्रदान किये जायें तो वे अधिक सीखते हैं।

इसमें दो प्रकार के पृष्ठों का प्रयोग किया जाता है।
ग्रह पृष्ठ (Home page)

त्रुटि पृष्ठ (Error page)

गृह पृष्ठ- इस पृष्ठ पर नवीन प्रत्यय की व्याख्या की जाती है।

छात्र इसको पढता है तथा सीखता है। अन्त में बहुनिर्वचन प्रश्न दिया जाता है। जिको छात्र को सही चयन करना होता है। सही उत्तर की पुष्टी होने पर उसे अगले पृष्ठ पर ले जाया जाता है। तथा उसके उत्तर की पुष्टी और अधिक व्याख्या से की जाती है।


त्रुटि पृष्ठ – यदि छात्र ग्रह पृष्ठ पर गलत विकल्प का चयन करता है तो त्रुटि पृष्ठ पर ले जाया जाता है।

शखीय अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार

१-  बहुनिर्वचन प्रश्न पर आधारित- Based on multiple choice question

२-  रचनात्मक अनुक्रिया प्रश्न पर आधारित (Based on constructive response question) – सूचना के अन्त में प्रश्न होते हैं। परन्तु उत्तर के लिए कोई विकल्प नही होता है। छात्र प्रश्नेां का उत्तर स्वयं देता है। तथा उत्तर की जांच भी स्वयं करता है।

३-  रचनात्मक निर्वचन प्रश्न पर आधारित – (Based on constructive choice question) छात्रों को प्रश्न का उत्तर लिखना होता है इसके बाद छात्र अनुक्रिया की पुष्टि करता है। जब छात्र अगले पृष्ठ पर जाता है तो उसे उपचारात्मक अनुदेशन दिया जाता है। क्योंकि यहां सही अनुक्रिया के विकल्प दिये जाते हैं।

४-  प्रश्न पुंज पर आधारित- (Based on block question) इसका स्वरूप अपठिव विषय वस्तु के समान होता है।
अवरोह या संयुक्त अनुदेशन ( Mathetics & adjunctive programming)

इसका मुख्य लक्ष्य पाठयवस्तु का स्वामित्व प्राप्त करना होता है।
इसका प्रत्यय थामस एफ गिलबर्ट ने दिया है।


             मैथेटिक्स के सिद्धान्त

१-  श्रंखला का नियम Principle of chain

२-  विभेदीकरण का नियम Principle of discrimination

३-  सामान्यीकरण का नियम Principle of generalization

          श्रृव्य दृश्य सामग्री (Audio visual aids)
प्रकार
१-  श्रृव्य सहायक सामग्री (Visual aids)
२-  दृश्य सहायक सामग्री (Audio aids)
३-  दृश्य श्रृव्य सहायक सामग्री (Audio visual aids)


प्रक्षेपित  और अप्रक्षेपित माध्यम( projective and non-projective media)

प्रक्षेपित माध्यम
अप्रक्षेपित माध्यम
स्लाइड तथा फिल्म पटटियां
बुलेटिन बोर्ड
चल चित्र
चाक बोर्ड
वीडियो टेप
फ्लेनल बोर्ड
 सिरोत्तर प्रक्षेपक
ग्राफ
अपारदर्शी सामग्री
चार्ट
रिकार्डिंग
माडल

मानचित्र

रेखाचित्र





ग्रामोफोन तथा लिंग्वाफोन(Gramophone and linguaphone )

ग्रामोफोन द्वारा बालकों को भाषण तथा गाने की शिक्षा दी जाती है।

लिंग्वाफोन- इसके द्वारा छात्रों के उच्चारण सही कराके भाषा की शिक्षा दी जाती है।

                     फ्लेनल बोर्ड

Epidiascope- इसमें पारदर्शियों की आवश्यकता नही होती है पुस्तकों की मुद्रित पाठयवस्तु तथा आक्रतियों को सीधे पर्दो पर प्रक्षेपित किया जाता है। इससे चित्र विस्तार भी कर दिया जाता है इसलिये इसे Opaque Projector भी कहते हैं।

Slides and film strips- स्लाइडों के द्वारा सूक्ष्म बातों को पर्दे पर बडा करके दिखाया जाता है।

स्लाइड सीसे की बनी होती हैं।
आकार 35 मिलिमीटर


          Overhead Projector
इससे पारदर्शी को पर्दे पर प्रस्तुत किया जाता है।
शिक्षा दूरदर्शन

दूरदर्शन का भारत में प्रयोग 15 सितम्बर 1959 में हुआ था।

रंगीन दूरदर्शन का आविर्भाव अगस्त 1982 में हुआ।

       शिक्षा दूरदर्शन की परियोजनायें

१- माध्यमिक विद्यालय की दूरदर्शन प्रकल्प- (secondary school television project)-24 अक्टूबर 1961

२- दिल्ली कृषि दूरदर्शन प्रकल्प 26 जनवरी 1966 को आरम्भ् हुआ।

३- सेटेलाइट अनुदेशनात्मक दूरदर्शन (satellite instructional television experiments)

प्रयोग 5 अगस्त 1975

४- भारतीय राष्ट्रिय उपग्रह ( Indian national satellite) 10 अप्रैल 1982


इन्दिरा गांधी राष्ट्रिय मुक्त विश्वविद्यालय (IGNOU)
अगस्त 1985 में इसका बिल पारित हुआ था। 20 सितम्बर 1985 को इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।

विश्वविद्यालय के संगठन का स्वरूप
१-  कार्यकारिणी परिषद executive council
२-  शैक्षिक परिषद academic council
३-  योजना परिषद planning council
४-  वित्त समीति Finance committee
५-  मान्यता समीति Affiliation department


    शिक्षण प्रतिमान (Teaching models)

बी आर जुआइस के अनुसार – शिक्षण प्रतिमान अनुदेशन की रूपरेखा माने जाते हैं। इसके अन्तर्गत विशेष उददेश्य प्राप्ति के लिये विशिष्ट परिस्थिति का उललेख किया जाता है। जिसमें छात्र व शिक्षक की अन्त: क्रिया इस प्रकार हो कि उनके व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाया जा सके ।

      शिक्षण प्रतिमान के आधारभूत तत्व

१-  उददेश्य (Focus)– उददेश्य से तात्पर्य  उससे है जिसके लिये प्रतिमान विकसित किया जाता है।

२-  संरचना (Syntax)- इसमें शिक्षण सोपानों की व्याख्या की जाती है। इसमें क्रियाओं का क्रम निर्धारण किया जाता है।

३-  सामाजिक प्रणाली(Social system) – इसमें कक्षा मे छात्रों एवं अध्यापको के मध्य सम्बन्धों का विश्लेषण किया जाता है।

४-  सहायक प्रणाली (Support system)– यह शिक्षण की सफलता से सम्बन्धित है। इसमें यह देखा जाता है कि शिक्षण उददेश्य की प्राप्ति हुई है या नही


          शिक्षण प्रतिमान के प्रकार
१-  ऐताहासिक शिक्षण प्रतिमान
सुकरात का शिक्षण प्रतिमान
परम्परागत मानवीय शिक्षण प्रतिमान
व्यक्तिगत विकास का शिक्षण प्रतिमान

२ दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान
प्रभाव प्रतिमान
सूझ प्रतिमान
नियम प्रतिमान

२      मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान
वुनियादी शिक्षण प्रतिमान
अन्त: प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान
अध्यापक शिक्षा के लिये शिक्षण प्रतिमान

१-  हिल्दा ताबा आगमन शिक्षण प्रतिमान – हिल्दा ताबा
२-  टरनर का शिक्षण प्रतिमान- टरनर
आधुनिक शिक्षण प्रतिमान


शिक्षण युक्तियां (Maxims of teachings)

१-  ज्ञात से अज्ञात की ओर
२-  स्थूल से सूक्ष्म की ओर From concrete to abstract
३-  सरल से जटिल की ओर
४-  प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर
५-  पूर्ण से अंश की ओर
६-  अनिश्चित से निश्चित की ओर
७-  विश्लेषण से संश्लेषण की ओर
८-  अनुभूति से युक्ति युक्त की ओर
९-  मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर
१०-                   प्राकृतिक अनुसरण


      शिक्षण प्रविधियां (Techniques of teachings)

१-  विवरण प्रविधि (Narration technique)
२-  स्पष्टीकरण प्रविधि(Exposition technique)
३-  वर्णन प्रविधि(Description technique)
४-  व्याख्या प्रविधि(Explanation technique)
५-  कहानी कथन प्रविधि  (story telling technique)
६-  पर्यवेक्षित अध्ययन (Supervised study technique)
७-  उदहारण प्रविधि (illustration technique)
८-  प्रश्न विधि (questioning technique)
९-  निरीक्षण विधि (Observation technique)
१०-                   ड्रिल विधि (Drill technique)


             शिक्षण की उच्च प्रविधियां

सम्मेलन प्रविधि (conference technique)
उच्च अधिगम के लिए महत्वपूर्ण
अनुदेशन एवं अधिगम परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए उपयोग में लायी जाती है।
इससे ज्ञानात्मक एवं भावात्मक उददेश्यो की प्राप्ति होती होती है।  बडा समूह
शिक्षकों अनुदेशकों तथा निर्देशकों की एक सभा होती है जिसमें कक्षा अनुदेशन एवं विद्यालय सम्बन्धी सम्स्याओं पर वाद विवाद किया जाता है। तथा वे किसी निर्णय पर पहुंचते हैं।


कार्यशाला प्रविधि (workshop technique)

शिक्षकों को नयी परीक्षाओं की रचना नइ पाठययोजना तथा शिक्षण उददेश्यों को व्यवहारिक रूप में लिखने के लिये प्रशिक्षण की जरूरत होती है इसके लिये कार्यशाला का आयोजन किया जाता है।
क्रियात्मक पक्ष के लिए इसका आयोजन किया जाता है।

              विचार गोष्ठी (seminar)

इसमें चिंतन स्तर के लिए परिस्थिति उत्पन्न की जाती है।
        भूमिकायें
१- अनुदेशक या व्यवस्थापक- तिथी कार्य रूपरेखा का निर्धारण
२- अध्यक्ष – इसका चयन भागीदारों के द्वारा होता है।
३- वक्तागण- वक्ता प्रकरण का अच्छी तरह तैयार करता है तथा भागीदरों में बाटं देता है फिर अपना प्रकरण प्रस्तुत करता है।
४- भागीदार या श्रोतागण- विचारगोष्ठी में 25 से 40 भागीदारों को सम्मिलित किया जाता है।


                     प्रकार

लघु विचार गोष्ठी mini seminar
मुख्य विचार गोष्ठी main seminar
राष्ट्रिय विचार गोष्ठी national seminar
अन्तराष्र्ट्रिय विचार गोष्ठि international seminar


        विचार समिति प्रविधि (symposium technique)
विचार समिति एक ऐसा समूह है जिसमें श्रोताओं को उत्तम प्रकार के विचारों से अवगत कराया जाता है। श्रोतागण प्रकरण सम्बन्धी सामान्य तैयारी के अपने मझे हुए विचारों को सम्मिलित करते हैं। और मूल्यों बोधगम्यता के सम्बन्ध में निर्णया लेते हैं।

                       उददेश्य
१-  तात्कालिक समस्या के पक्षों को पहचानना तथा उनकी जानकारी करने की क्षमता का विकास करना
२-  समस्या सम्बन्धी निर्णय लेने की क्षमता का विकास करना
३-  व्यापक दृष्टिकोण का विकास करना ।
४-  ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च पक्षों का विकास करना ।


        विचार समिति प्रविधि की प्रक्रिया

यह किसी विभाग संस्था या संगठन के  द्वारा आयोजित की जाती है। भाषण के अन्त में श्रोताओं को प्रश्न करने या वाद विवाद का अवसर नही दिया जाता है।


विचार समिति के प्रयोग के क्षेत्र
१-  अनुशासनहीनता के कारण
२-  शोध कार्यों में गुणात्मक विकास


               उभारक (primes)
पूर्व व्यवहारों से अन्तिम व्यवहारें को जोडने के लिए जिन पदों की रचना की जाती है उनमें उभारक प्रयोग किये जाते हैं।


बी एफ स्किनर – उभारक वह प्रविधि है जिसके प्रयोग से पूर्व व्यवहारों से अन्तिम व्यवहारें की संरचना के लिए आरम्भिक अनुक्रिया के लिए सहायता प्रदान की जाती है।

           अनुबोधक (prompts)
अनुबोधक एक ऐसी प्रविधि है जो छात्रों को सही  अनुक्रिया करने में सहायता प्रदान करती है।

सुशन मारकल – अनुबोधक एक सहायक उददीपन होता है। जो अन्तिम अनुक्रिया को सरल बनाता है। और पद सही  अनुक्रिया के लिए सरल हो जाता है। परन्तु यह स्वयं में अनुक्रिया उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त नही होता है ।


         सम्प्रेषण (communication)

सम्पेषण का अर्थ होता है परस्पर विचारों एवं भावनाओं की साझेदारी करना होता है।

शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द कम्युनिस से हुई है। जिसका अर्थ है सामान्य अनुभव होना।
विशेषताएं
१-  परस्पर विचारों एवं भावनाओं का आदान प्रदान
२-  गत्यातमक प्रकृति
३-  द्वि मार्गीय प्रक्रिया
सम्प्रेषण प्रक्रिया
संदेशवाहक—कोडीकरण-संदेश का माध्यम- डिकोडीकरण – प्राप्तकर्ता- पृष्ठोषण


                     सम्प्रेषण के प्रकार
१-  शाब्दिक
२-  अशाब्दिक


         निर्देशन एवं परामर्श (guidance and counseling )

                           निर्देशन

व्यक्ति को स्वयं तथा समाज के उपयोग के लिए स्वयं की क्षमताओं के अधिकतम विकास के प्रयोजन से निरन्तर दी जाने वाली सहायता ही निर्देशन है।

                  निर्देशन के प्रकार
१-  व्यावसायिक निर्देशन
२-  शैक्षिक निर्देशन
३-  व्यक्तिगत निर्देशन
४-  स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशन
५-   आर्थिक निर्देशन


                            परामर्श

परामर्श का अर्थ पूछताछ पारस्परिक तर्क-वितर्क या विचारों का वास्तविक विनिमय है।

परामर्श के प्रकार

१-  निर्देशात्मक- (Directive )-इसमें परामर्शदाता मुख्य होता है। परामर्शदाता परामर्श पाने वाले को दिशा दिखाता है।

             इसमें 6 चरण होते हैं।
१-  विश्लेषण
२-  संश्लेषण
३-  निदान
४-  पूर्वानुमान
५-  उपबोधन
६-  अनुवर्तन


अनिर्देशात्मक परामर्श (non directive)

इसमें परामर्श प्राप्त करनेवाला मुख्य होता है। परामर्शदाता केवल परामर्श प्राप्त करने वाले को अपनी समस्या स्वयं हल करने के लिए
अभिप्रेरित करता है।


                 परामर्श के अन्य प्रकार

नैदानिक परामर्श
मनोवैज्ञानिक परामर्श
मनोचिकित्सीय परामर्श
उपचारात्मक परामर्श
निर्देशन एक व्यापक प्रक्रिया है।
परामर्श एक संकुचित प्रत्तय है। यह विशिष्ट होता है।

                मूल्यांकन के प्रकार

१-  रचनात्मक मूल्यांकन (Formative evluation)– रचनात्मक मूल्यांकन के अन्तर्गत शैक्षणिक कार्यक्रम के निर्माण की प्रक्रिया में निर्णय लिया जाता है कि विकास किया जाने वाला कार्यक्रम कहां तक सफल है। रचनात्मक मूल्यांकन शैक्षणिक कार्यक्रमों की निर्माण प्रक्रिया में उस समय तक पृष्ठपोषण देता है जब तक कि कार्यक्रम पूर्व निर्धारित उददेश्यों की प्राप्ति करने मे सफल न हो जाये।



२-  आकलित मूल्यांकन (Summative evaluation)– आकलित मूल्यांकन शिक्षण सत्र के अन्त में कया जाने वाला मूल्यांकन है। जो कि सफलता की सीमा का सामान्य मूल्यांकन करता है।


३-  स्थापन मूल्यांकन (placement evaluation)- इसमें यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि बालक में वह अपेक्षित गुण या व्यवहार उपस्थित है या नही जो पढाये जाने वाले पाठ या अन्य प्रकार के अधिगम करने के लिए आवश्यक है।
यह पूर्व ज्ञान के नाम से जाना जाता है।

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शिक्षा के सामाजिक आधार शिक्षा तथा समाज मे अटूट सम्बन्ध है। जैसा समाज होगा वैसी ही वहां की शिक्षा व्यवस्था होगी। आधूनिक समाज विज्ञान पर विशेष बल आदर्शवादी समाज आध्यात्मिक विकास पर बल भौतिकवादी समाज भौतिक सम्पन्नता पर बल प्रयोजनवादी समाज क्रिया एवं व्यवहार पर बल जन्तन्त्रवादी समाज लोकतान्त्रिक आदर्शो पर आधारित शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समाज सामाजिक सम्बन्धों का जाल होता है। शिक्षा का समाज पर प्रभाव सामाजिक विरासत का संरक्षण सामाजिक भावना को जाग्रत करना समाज का राजनैतिक विकास समाज का आर्थिक विकास सामाजिक नियन्त्रण् सामाजिक परिवर्तनों को बढ़ावा सामाजिक सुधार बालक का सामाजीकरण समाज का शिक्षा पर प्रभाव शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण शिक्षा के उददेश्य का निर्धारण शिक्षा की पाठयचर्या का निर्धारण शिक्षण विधियों का निर्धारण विद्यालय के स्वरूप का निर्धारण प्रबन्धन के तरीकों का निर्धारण शैक्षिक समाजशास्त्र की प्रकृति शैक्षिक समाजशास्त्र शैक्षिक समस्याओं के लिए समाजशास्त्र का प्रयोग है। यह शिक्षाशास्त्री

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शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार Psychological foundation of education

शिक्षा का मनोवैज्ञानिक आधार अधिगम अन्तर्दृष्टि का सिद्धान्त सूझ का सिद्धान्त Gestalt theory, Insight theory गेस्टाल्टवाद पूर्णाकार समग्रता जर्मन शब्द वर्दिमर कोहलर कोफका लेविन दवारा सिद्धान्त की विशेषताएं 1 इसमे व्यकति समस्या का पूर्ण रूप से अवलोकन करता है। 2 यान्त्रिक क्रियाओं की अपेक्षा उददेश्य पूर्ण व चेतना बद्ध प्रयास पर बल दिया। 3 समस्या का समाधान अचानक व्यक्ति के मस्तिष्क मे आता है। 4 प्रयास व त्रुटि व अनुबन्धन द्वारा सीखने को नही माना। 5 अधिगम हमेशा उददेश्य पूर्ण खोजपरक एवं सृजनात्मक होता है। 6 सूझ के लिए समस्यातमक परिस्थिती आवश्यक है। 7 पूर्व अनुभव सहायक। 8 सूझ के लिए अभ्यास की आवश्यकता नही। 9 इस प्रकार के अधिगम का दूसरी स्थिति मे transfer हो सकता है। प्रयोग इन्होने अपना प्रयोग एक चिम्पेन्जी पर किया उसको एक पिंजरे में बन्द किया और छत से केला लटका दिया तथा एक लकड़ी का बक्सा रख दिया। सुल्तान ने उछल कर केले को पाने का प्रयास किया परन्तु वह असफल रहा। वह कोने में बैठ गया और पूरी परिस्थिति का सही से अवलोकन किया तभी उसके मस्तिष्क में एक विचार